महिला सशक्तिकरण को देखना या समझना है तो बस या मेट्रो में सफर करना शुरू कर दें। यहां हर स्टॉप व स्टैंड पर चढ़ने वाली लड़कियों को देखकर अक्सर पुरुषों की हवा टाइट हो जाती है.... कि कहीं मेरी नजरें किसी लड़की से टकरा गई, तो बेहद थकान में चूर होने के बाद भी मुझे खड़े होकर ही जाना पड़ेगा....क्यों भाई....अरे क्यों भाई... मर्द को दर्द नहीं होता ना इसलिए?
मैं हर रोज सफर करते ऐसे कई लड़कों को देखती हूं, जो थकान से भरे होते हैं, लेकिन फिर भी लड़की के लिए सीट छोड़ देते हैं। ऐसा देखकर मन करता है कि.... बस की सीट पर चढ़ जाऊं और सीटों के ऊपर लिखे "केवल महिलाएं" मिटा कर "जरूरतमंद" कर दूं....,तो सशक्तिकरण की कहानी यहीं खत्म नहीं होती। भरी मेट्रो में या बस में जब अचानक ब्रेक लगता है, तो यहां भी नजारा बड़ा दिलचस्प होता है....की लड़का लड़की पर गिरे, तो वो बुरा है... ।
चाहे गलती से गिरा हो, लेकिन लड़की लड़के पर गिरे तो कोई बात नहीं फिर चाहे गिरने से उस लड़के की कमर या शरीर के किसी हिस्से को गहरी चोट पहुंची हो...ऐसा क्यों ??...क्योंकि सशक्तिकरण चल रहा है ना यार...। पर ये कैसा महिला सशक्तिकरण है, जो भीड़ में ही आता है और किसी ऐसे व्यक्ति को डराता है, जो महिलाएं की इज्जत करता है, उनकी जरूरत को समझ कर उन्हें सीट देता है।
इस तरह अगर दबे हुए को ही दबाओगे तो सशक्तिकरण का क्या मतलब? यानि अंत में निष्कर्ष वही निकलता है कि जो दबे उसे दबाओ और जो न दबे उसके सामने खुद दब जाओ। कुछ बातें बहुत सीधी-सी हैं की कहीं किसी जगह पर किसी का नाम लिख देने से वो आपकी नहीं हो जाती, जिस जगह या वस्तु की आपको जरूरत है, उसके लिए आवाज उठाओ सिर्फ सीट पर नाम लिखने भर से वो आपकी नहीं हो जाती।
महिलाएं एक जगह तो ये सोचकर खुश हो लेती हैं की हमारा हक है इसलिए मिलना ही चाहिए। पर यह नहीं सोचती की ये हक का मिलना है या दो वर्गो का बटना, जहां एक को हक मिला उस जगह के रूप में ताकि वो अपना काम चला सके बस इतना काफी है और दूसरे को मिला अड़ें खाली। मैं उन पुरुषों से हमेशा प्रभावित होती हूं और उनका सम्मान भी करती हूं, जो हमारी जरूरत को अपनी जरूरत से पहले देखते हैं।
और जरा सच पूछिए, तो किसी जरूरतमंद के लिए सीट छोड़ने की आदत ....मैंने उन्हें पुरुषों से सीखी और समझी है। इसके लिए मैं तहे दिल से उनका शुक्रिया अदा करती हूं। आप सब मेरी जैसी तमाम लड़कियों को ऐसे ही सीख देते रहिए मुझे विश्वास है ये तस्वीर एक दिन जरूर बदलेगी।
(लेखिका गीता को पढ़ने और लिखने का बहुत शौक है। उन्होंने हिंदी और जर्निलज्म में मास्टर किया है।)
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