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भोजन भगवान को अर्पित करके ही क्यों खाना चाहिए? जानें शास्त्रों में कही गई इस बात की वजह

घर के बड़े-बुजुर्गों को आपने अक्सर ऐसा कहते हुए सुना होगा कि भोजन आरंभ करने से पहले इसे ईश्वर को अर्पित जरूर करें, लेकिन इसके सही कारणों के बारे में शायद आप नहीं जानती होंगी। आइए आपको इसके पीछे की वजह विस्तार से बताएं।
Editorial
Updated:- 2025-09-08, 19:55 IST

हमारी संस्कृति में भोजन को केवल भूख मिटाने का साधन नहीं माना जाता है बल्कि इसे ईश्वर का आशीर्वाद भी समझा जाता है। इसी वजह से सदियों से एक परंपरा चली आ रही है कि भोजन करने से पहले उसे भगवान को अर्पित किया जाता है। जब हम अपने भोजन को भोग लगाकर भगवान को समर्पित करते हैं, तो वह एक साधारण भोजन नहीं रह जाता है बल्कि प्रसाद का रूप ले लेता है। ऐसा प्रसाद केवल शरीर को पोषण नहीं देता है बल्कि आत्मा को भी शांति और सात्त्विक ऊर्जा से भर देता है। शास्त्रों में कहा गया है कि जो भोजन ईश्वर को अर्पित करके खाया जाता है, वह हमें कई परेशानियों और पापों से मुक्त करता है और हमारी आत्मा को शुद्ध करता है। यही नहीं श्रीकृष्ण ने भी भगवद् गीता में यही संदेश दिया है कि अपने भोग के लिए भोजन पकाना पाप का कारण है, जबकि भगवान को अर्पित भोजन आत्मा को पवित्र करता है। आइए ज्योतिर्विद पंडित रमेश भोजराज द्विवेदी से जानते हैं कि भोजन ग्रहण करने से पहले ईश्वर को अर्पित क्यों करना चाहिए।

भोजन को प्रसाद बनाने की परंपरा

हमारे शास्त्रों में कहा गया है कि भोजन केवल स्वाद या भूख मिटाने का माध्यम नहीं होना चाहिए, बल्कि यह भगवान की सेवा का तरीका भी माना जाता है। भोजन बनाने और उसे अर्पित करने की भावना ऐसी होनी चाहिए कि यह ईश्वर को प्रसन्न कर सके। जब हम पवित्र शरीर और मन से भोजन तैयार करने ईश्वर को भोग लगाते हैं तब वही भोजन प्रसाद बन जाता है, जो केवल शरीर को ही नहीं बल्कि आत्मा को भी पवित्र करता है।

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क्या है भोग लगाने की परंपरा

शास्त्रों में उल्लेख है कि भोजन करने से पहले उसे भगवान को अर्पित करना चाहिए। आमतौर पर जब भोजन तैयार किया जाता है तब इसे सम्मानपूर्वक भगवान के सामने रखा जाता है और उनसे मौन या मंत्रों के साथ प्रार्थना की जाती है कि वे इस भोजन को स्वीकार करें। जब ईश्वर उस भोजन को स्वीकार करते हैं तब वही भोजन प्रसाद बन जाता है और इस प्रसाद को ग्रहण करने से शरीर और मन को संतुष्टि मिलती है। यह प्रसाद केवल भोजन नहीं होता, बल्कि ईश्वर की कृपा और आशीर्वाद का प्रतीक भी बन जाता है।

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भोजन को लेकर गीता का संदेश

श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय 3, श्लोक 13 में कहा गया है:-"यज्ञशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषैः। भुञ्जते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात्॥"
इसका ार्यः यह हुआ कि जो व्यक्ति भोजन को पहले ईश्वर को अर्पित करके प्रसाद रूप में ग्रहण करता है उसे सभी पापों से मुक्ति मिल सकती है। वहीं जब हम सिर्फ अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए भोजन पकाते और खाते हैं, तो इसका शरीर के लिए सकारात्मक प्रभाव नहीं होता है।

भोजन को भगवान को अर्पित करना केवल धार्मिक आस्था का विषय नहीं है, बल्कि यह हमारी चेतना को शुद्ध करने की प्रक्रिया भी है। प्रसाद रूप में ग्रहण किया गया भोजन हमें विनम्रता और कृतज्ञता सिखाता है।
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