गणेश चतुर्थी का त्योहार देशभर में धूमधाम से मनाया जाता है। इस दौरान लोग गणपति बप्पा की मूर्ति घर लाते हैं और विधि-विधान से उनकी स्थापना करते हैं। लेकिन क्या आपने कभी ध्यान दिया है कि जब भी गणपति की मूर्ति लाई जाती है, तो उनका चेहरा ढका होता है? यह कोई रिवाज नहीं है, बल्कि इसके पीछे गहरी धार्मिक और आध्यात्मिक मान्यताएं हैं। मूर्ति की स्थापना से पहले उसका चेहरा न दिखाने के पीछे मुख्य कारण हैं पंडित जन्मेश द्विवेदी जी ने हमारे साथ शेयर किया।
गणपति बप्पा के चेहरे को छिपाने से बनी रहती है शुद्धता और पवित्रता
गणेश चतुर्थी के दौरान, मूर्ति की स्थापना एक अत्यंत पवित्र अनुष्ठान माना जाता है। मूर्ति को घर लाने से लेकर उसकी स्थापना तक, हर कदम में पवित्रता का ध्यान रखा जाता है। ऐसी मान्यता है कि मूर्ति को ढककर रखने से वह बाहरी दुनिया की नकारात्मक ऊर्जा और अशुद्धता से बची रहती है। यह सुनिश्चित करता है कि मूर्ति जब घर के पूजा स्थल में स्थापित हो, तो वह पूरी तरह से शुद्ध और पवित्र रहे। इसके बाद इनकी विधि-विधान से पूजा की जाए, ताकि उनकी सकारात्मक ऊर्जा हमारे घर पर ही बनी रहे।
गणपति की मूर्ति को ढककर लाने से बनी रहती है शुभता
कई लोग इसे शुभता और समृद्धि का प्रतीक भी मानते हैं। गणपति बप्पा को विघ्नहर्ता और मंगलकारी माना जाता है। उनके मुख को पहली बार शुभ मुहूर्त में खोलना घर में सुख-समृद्धि के आगमन का संकेत देता है। पंडित जी के बताए अनुसार मूर्ति को ढककर घर में लाना इस बात का प्रतीक है कि आप अपने घर में शुभता और सौभाग्य ला रहे हैं। इसलिए गणपति जी के चेहरे को हमेशा ढककर रखा जाएगा।
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गणपति जी की मूर्ति को ढककर लाने से बढ़ती है श्रद्धा
मूर्ति का चेहरा ढका होने से भक्तों में एक खास तरह की उत्सुकता बनी रहती है। यह उत्सुकता और श्रद्धा को और भी गहरा करती है। जब गणेश जी की मूर्ति से पर्दा उठता है, तो वह क्षण भक्तों के लिए बहुत ही भावुक और प्रतीकात्मक होता है। ऐसा कहा जाता है कि जब भक्त गणपति की मूर्ति को अपने घर में स्थापित करते हैं और फिर पहली बार उनका मुख देखते हैं, तो वह पल उत्सव की खुशी और धार्मिक भावनाओं को चरम पर पहुंचा देता है। ऐसा माना जाता है कि इस क्षण में किया गया दर्शन अत्यंत शुभ होता है और गणपति बप्पा प्रसन्न होकर भक्तों को आशीर्वाद देते हैं।
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इन सभी धार्मिक और आध्यात्मिक कारणों से, गणपति बप्पा की स्थापना से पहले उनका चेहरा नहीं दिखाया जाता। यह परंपरा न केवल श्रद्धा और सम्मान का प्रतीक है, बल्कि यह इस महान उत्सव की पवित्रता और दिव्यता को भी बनाए रखती है।
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