महामंडलेश्वर एक सम्मानजनक उपाधि है, जो भारतीय संत परंपरा में विशेष रूप से अखाड़ों के प्रमुख साधुओं को दी जाती है। महामंडलेश्वर शब्द का मतलब होता है 'मंडल (क्षेत्र) का सर्वोच्च आध्यात्मिक नेता'। हिंदू धर्म के अखाड़ों में महामंडलेश्वर सबसे ऊंचा पद होता है। यह उपाधि हिंदू धर्म की शैव, वैष्णव और उदासी संप्रदायों के साधुओं को प्रदान की जाती है।
एक सम्मानजनक उपाधि है, जो भारतीय संत परंपरा में विशेष रूप से अखाड़ों के प्रमुख साधुओं को दी जाती है। यह उपाधि हिंदू धर्म की शैव, वैष्णव, और उदासी संप्रदायों के साधुओं को प्रदान की जाती है। स्कंद पुराण, शिव पुराण और वायु पुराण जैसे प्राचीन ग्रंथों में संतों व साधुओं की परंपराओं का विस्तृत विवरण मिलता है। इन ग्रंथों में संत समाज के संगठन, भूमिका और उनके कर्तव्यों का उल्लेख किया गया है। इसमें महामंडलेश्वर जैसे पद का उल्लेख भी मिलता है।
मनुस्मृति और अन्य धर्मशास्त्रों में भी सन्यासियों की भूमिकाओं और अधिकारों का वर्णन किया गया है, जो कि उनके जीवन के आदर्श और नियम निर्धारित करते हैं। इन ग्रंथों में संतों के जीवन में संयम, तपस्या और समाज के कल्याण के महत्व को विशेष रूप से रेखांकित किया गया है, जो कि महामंडलेश्वर से संबंधित है। इसी क्रम में आइए एमपी, छिंदवाड़ा के पंडित सौरभ त्रिपाठी से महामंडलेश्वर पद के बारे में विस्तार से जानते हैं।
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महामंडलेश्वर का पद जिम्मेदारियों से भरा हुआ है। इसके लिए शास्त्री या आचार्य होना जरूरी है, जिसने वेदांग की शिक्षा हासिल कर रखी हो। यदि ऐसी कोई डिग्री न हो तो व्यक्ति का कथावाचक होना अनिवार्य है, पर इसके लिए वहां मठ होना भी जरूरी है। इसके बाद, साधु-संतों की ओर से मठ की जांच की जाती है। इसमें देखा जाता है कि मठ द्वारा वहां पर सनातन धर्मावलंबियों के लिए विद्यालय, मंदिर, गोशाला आदि का संचालन कर रहे हैं अथवा नहीं? जांच के बाद, अगर अपेक्षा के अनुरूप काम होता है तो उन्हें पदवी मिल जाती है।
इसके अलावा, तमाम डाक्टर, पुलिस-प्रशासन के अधिकारी, इंजीनियर, वैज्ञानिक, अधिवक्ता और राजनेता भी सामाजिक जीवन से मोहभंग होने पर संन्यास धारण करते हैं। ऐसे लोगों को किसी अखाड़े का महामंडलेश्वर बनाया जा सकता है। इनके लिए संन्यास में उम्र की छूट रहती है। फिर उनके जरिए धार्मिक कार्यों को आगे बढ़ाया जाता है।
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