22 साल की शालिनी...एक नाजुक-सी, मासूम-सी कली, जिसकी आंखों में सपनों की एक पूरी दुनिया सजी थी। आज वह अपने हाथों में शादी की मेहंदी लगवा रही थी, जिसमें उसने बहुत प्यार से लिखवाया था 'विजय'। शालिनी की सहेलियां हंसी-मजाक में उसे छेड़ रही थीं, विजय जीजू बहुत हैंडसम हैं, विजय जीजू तो बहुत ही रोमांटिक हैं।
शालिनी का चेहरा शर्म से लाल हो रहा था और ठीक वैसा लग रहा था जैसे बरसात में भीगी गुलाब की पंखुड़ी। लेकिन, शालिनी को यह नहीं पता था जिस मेहंदी की आज वह खुशियां मना रही है, वही उसकी किस्मत की हथेली पर दर्द की इबारत बनकर उतर रही है। उसे बिल्कुल अहसास नहीं था विजय सिर्फ एक नाम नहीं, बल्कि उसकी जिंदगी हिला देने वाला तूफान है...।
शालिनी अपने दूर-दूर के ख्वाब में नहीं सोच पा रही थी कि विजय नाम का यह इंसान, उसकी जिंदगी में उजाला नहीं, अंधेरे का पिटारा लेकर आ रहा है। शादी की शान में कोई कसर नहीं छोड़ी गई, मां ने अपने गहने और बचत लुटा दी थी, पापा ने बेटी को दुआओं और नसीयतों का झोला पकड़ा दिया था। शालिनी ने भी अपने अरमानों की उड़ान भर ली। गाड़ी में बैठकर जैसे ही शालिनी विदा हुई, उसके मन में सिर्फ अपने सुनहरे जीवन और अरमानों की उड़ान थी। जिसमें एक प्यार और सम्मान करने वाला पति, बहू नहीं बेटी मानने वाली सास और खूब सारी खुशियां होंगी।
पर यह क्या...जैसी ही वह ससुराल पहुंची, सपनों की वो रंगीन चूनर जलकर राख हो गई। शादी की पहली रात सुहाग की सेज पर पति का इंतजार करती शालिनी को अचानक डर के साए ने घर लिया। जैसे ही विजय कमरे में आया तो शालिनी ने देखा वह शराब के नशे में चूर है और उसने कमरे में आते ही शालिनी का हाथ ऐसे थामा कि एक-दो चूड़ियां टूटकर जमीन पर बिखर गईं। और फिर बताने लगा 'घर के नियम'। वो नियम नहीं, बल्कि चेतावनी थी।
"यहां तुम्हारी मर्जी नहीं चलेगी...जुबान खोलने से पहले सोच लेना।"
शुरू-शुरू में शालिनी को लगा कि शायद पति किसी बात से चिढ़ गया है और यह एक-दो दिन का गुस्सा है...या यह उनका प्यार जताने का तरीका है। लेकिन, वह 'एक दिन' सालों में बदल गया।
विजय की शराब की लत, कोई एक दिन की चीज नहीं थी, बल्कि उसके वजूद का हिस्सा थी। विजय हर शाम नशे में लड़खड़ाते कदमों से घर में कदम रखता और गालियों की बौछार शुरू कर देता। गालियां देते-देते कब वह शालिनी पर हाथ उठाने लगता, शायद उसे खुद नहीं पता। कभी बेल्ट, कभी कुर्सी, कभी दीवार से सिर टकराना, कभी गले में उंगली डालकर चुप कराना...हर रात शालिनी 'बीवी' से 'शिकार' बन जाती थी।
उसकी सास भी किसी राक्षसी से कम नहीं थी, बेटे को रोकने की जगह आग में घी डालने वाला काम ही करती थी। वह शालिनी को बेटी तो दूर इंसान तक, नहीं समझती थी। उल्टा जैसे ही विजय शराब पीकर घर आता था, उसके कान भरना शुरू कर देती..." आज तो कुछ कहना ही पड़ेगा बहू की बदतमीजियों के बारे में..." बस फिर क्या, विजय अपनी बेल्ट निकालता और शालिनी को मारना शुरू कर देता। इसके बाद रात चीखों और सिसकियों में बीत जाती।
मोहल्ले वालों के लिए शालिनी की चीखें अब सड़क पर बजते हॉर्न की तरह हो गई थीं। एक बार एक पड़ोसी ने दया दिखाकर पुलिस को बुलाया भी था, तो शालिनी ने फूट-फूटकर कह दिया था..." नहीं साहब, मैं ही गिर गई थी सीढ़ियों से..." उस दिन शालिनी ने अपनी आत्मा को जिंदा दफनाने का काम किया था।
क्यों? क्योंकि, उसकी मां ने कहा था, "बेटी इस घर से डोली जा रही है, तो उस घर से अर्थी ही निकलेगी।" इस सीख के साथ वह हर दिन टूटती रही और शादी को 'धर्म' मानकर अपमान की चौखट पर माथा टेकती रही।
वक्त बीता...और दो फूल खिले, रूचि और गौरवी। पर ये फूल भी शालिनी की जिंदगी में बहार नहीं ला पाए, बल्कि नए जख्मों की वजह बन गए। विजय ने बेटियों की पैदाइश पर शालिनी को ऐसे पीटा जैसे उसकी मर्दानगी पर किसी ने सवाल उठा दिया हो।
हर दिन शालिनी मार खाती रही और चुप चाप दर्द सहती रही। बीस साल...बीस साल शालिनी ने यह नर्क भोगा। लेकिन, उस रात, कुछ टूट गया।
शालिनी और विजय की शादी की सालगिरह थी। लेकिन, हमेशा की तरह विजय नशे में धुत्त होकर आया। शालिनी ने कुछ नहीं बोला और चुपचाप खाना परोस दिया। लेकिन, विजय ने थाली को धक्का मार दिया और चिल्लाकर बोला..."नमक ज्यादा है"। इसके बाद विजय ने शालिनी को बालों से पकड़कर घसीटा, मारा और तबतक मारा जबतक उसका जबड़ा नहीं टूट गया।
फर्श पर खून ऐसे बहने लगा, जैसे पानी। विजय की इस करतूत को दीवारों ने देखा और बेटियों ने सुना। लेकिन, उस रात पहली बार शालिनी ने अपनी बेटियों की आंखों में डर नहीं, सवाल देखा।
मां...कब तक चुप रहोगी? यह सवाल शालिनी की आत्मा में ऐसा तूफान लाया जिसने सबकुछ पलटकर रख दिया। शालिनी उठी और बेटियों का हाथ थामकर घर से निकल गई।
शालिनी को नहीं पता था वह कहां जा रही है, क्या करेगी। बेटियों को कहां लेकर जाएगी। लेकिन, बस वह इतना जानती थी कि वह अब किसी की बीवी नहीं, किसी की बहू नहीं, सिर्फ शालिनी बनेगी।
एक रात ने बदल दी शालिनी की जिंदगी
सालों से चुप, हर गाली, हर थप्पड़ को किस्मत समझकर सहने वाली शालिनी का उस रात सिर्फ जबड़ा नहीं टूटा, बल्कि उसकी चुप्पी, सहने की शक्ति और अंदर का डर भी टूट गया। सुबह जब उसने आईना देखा तो चेहरा पहचान नहीं आ रहा था। सूजी हुई आंखें, कटे होठ, खून की सूखी परतें और गर्दन पर अनगिनत नीले निशान...लेकिन, एक चीज अलग थी। आंखों में डर नहीं था, आग थी और उस आग का नाम था, "अब और नहीं"
उस दोपहर कांपते हाथों से शालिनी ने महिला हेल्पलाइन को फोन मिलाया। जब बोली तो आवाज कांप रही थी लेकिन, शब्दों में ठंडक...जैसे बरसों से जमी बर्फ पिघल गई हो। उसने अपने पति के खिलाफ शिकायत दर्ज करा दी। शालिनी के लिए यह कदम उठाना आसान नहीं था। समाज, परिवार, यहां तक अपनी खुद की परछाई से लड़ना पड़ा। वह जानती थी, अगर अब नहीं तो कभी नहीं। शायद अपनी बच्चियों के लिए भी कभी नहीं।
विजय गिरफ्तार हुआ। पहली बार उसकी सास की जुबान बंद रही, जो हमेशा कहती थी, "बीवियां तो सहने के लिए होती हैं।" और वह पड़ोस, जिनके कानों तक सिर्फ चीखें पहुंचती थीं और अब उनकी आंखें शालिनी की हिम्मत देखकर खुली की खुली रह गईं।
शालिनी ने केस किया, सबूत था उसका चेहरा, उसकी टूटी पसलियां और गवाह बनीं उसकी दोनों बेटियां, जिन्होंने अपना पूरा बचपन मां को सिर्फ मार खाते देखा था। शालिनी केस तो जीत गई, लेकिन अभी कुछ बाकी था। वह अब अपनी बेटियों के सात एक कमरे में किराए पर रहती थी, जहां छत से पानी टपकता था, पर उसकी आत्मा नहीं रोती थी। रात भले ही तीनों भूखे पेट सोती थीं, लेकिन कोई डर नहीं था। कोई गालियां नहीं देता था, कोई बर्तनों के साथ इज्जत नहीं तोड़ता था।
42 साल की शालिनी एक प्राइवेट ऑफिस में मेड का काम करती थी और रात को कानूनी किताबों के साथ दोस्ती करती थी। उसे अब कानून की हर धारा याद थी और हर दर्द भी। एक दिन उसकी नजर अखबार में एक ऐड पर पड़ी, "घरेलू हिंसा, दहेज और वैवाहिक धोखाधड़ी जांच के लिए महिला डिटेक्टिव्स की जरूरत है..."
ऐड देखते ही शालिनी के अंदर से आवाज आई..."यह काम तेरा है।" इसके बाद शालिनी को किसी ने नहीं रोका, न समाज, न किसी डर। इंटरव्यू में उससे पूछा गया, कोई एक्सपीरियंस है? शालिनी ने सीधा आंखों में आंखें डालकर कहा, "बीस साल का अनुभव है...हर मुस्कुराहट के पीछे का जहर पढ़ सकती हूं, अब हर झूठ की गंध पहचान सकती हूं।" उसके कॉन्फिडेंस, उसकी आंखों की आग और उसकी कहानी सुनकर एजेंसी ने तुरंत शालिनी को ट्रेनिंग प्रोग्राम में शामिल कर लिया। जहां शालिनी ने कैमरा छिपाना, फोन टैप करना, संदिग्धों पर नजर रखना...लेकिन सबसे ज्यादा खुद को पहचानना सीखा।
अब शालिनी सिर्फ एक जासूस नहीं थी। वह उन हजारों औरतों की आवाज बन गई थी, जो उन घरों और दीवारों के पीछे बंद थीं और हर रात सिसकती थीं। वह उस हर लड़की की मदद के लिए तैयार खड़ी रहती, जिन्हें शादी के समय लक्ष्मी कहा गया लेकिन, ससुराल में दहेज की गाय समझा गया। क्योंकि, वह जानती थी हर दर्द का चेहरा अलग होता है, लेकिन तकलीफ एक-सी होती है।
शालिनी की कहानी तो यहां खत्म हो गई। लेकिन, ऐसी कई कहानियां हैं जो हमें अपने आस-पड़ोस या परिवार में सुनने को मिल जाती हैं। जहां औरतों सालों-साल पति और सास-ससुर का जुल्म सहती रहती हैं। लेकिन, बस इसलिए चुप रहती हैं क्योंकि, उनकी मां ने भी यही सब सहा है और सीख देकर भेजा है कि यही औरतों की जिंदगी है। लेकिन, आज हम 21वीं सदी में हैं जहां किसी भी काम में महिलाएं पुरुषों से पीछे नहीं हैं। तो फिर किस लिए किसी की गालियां, मार और जुल्म सहना है। और अपने लिए खुद आवाज उठाएं, क्योंकि जो खुद की मदद नहीं कर सकता, उसकी भगवान भी मदद नहीं कर सकता है।
यह कहानी ऐसे तो पूरी तरह से काल्पनिक है और पूरी तरह से सिर्फ कहानी के उद्देश्य से लिखी गई है। हमारा उद्देश्य किसी की भावनाओं को ठेस पहुंचाना नहीं है। ऐसी ही कहानी को पढ़ने के लिए जुड़े रहें हर जिंदगी के साथ।
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