91 वें एकेडमी अवॉर्ड्स में भारत को ऑस्कर दिलाने वाली बेस्ट डॉक्यूमेंट्री शॉर्ट फिल्म ‘पीरियड्स: एंड ऑफ सेन्टेंस’ भारतीय पृष्ठभूमि पर आधारित है। इस फिल्म में भारत में सबसे बड़ा टैबू समझे जाने वाले सब्जेक्ट यानी पीरियड्स को विषय बनाया गया है। यह फिल्म उत्तरप्रदेश में रहने वाली स्नेहा और उसकी सहेलियों की कहानी है, जो पीरियड्स से जुड़ी रूढ़ीवदी सोच के खिलाफ जाकर गांव की महिलाओं को सेनिटरी पैड्स के लिए न केवल जागरूक करती हैं बल्कि मिलकर सेनिटरी पैड्स बनाती भी हैं। इस फिल्म में कथिखेड़ा गांव की रहने वाली स्नेहा भी हैं। इस फिल्म को भारतीय प्रोड्यूसर गुनीत मोंगा ने प्रोड्यूस किया है और रयात्ता हताबची और मैलिसा बर्टन ने निदेशित किया है।
स्नेहा का संघर्ष
कुछ साल पहले एक संस्था ने गांव की महिलाओं से पीरियड्स में इस्तेमाल किए जाने वाले सैनिटरी पैड्स बनाने का काम शुरु करने के लिए संपर्क किया था। स्नेहा भी इन महिलाओं में शामिल थीं। मगर, पहली बार जब उनसे इस बारे में बात की गई तो वह शर्मा गई थीं। बाद में घर आकर उन्होंने सोचा कि यह काम बुरा नहीं बल्कि उनके और गांव की महिलाओं के लिए फायदे का है। तब उन्होनें इस काम करने का फैसला लिया और अपनी सहेलियों को भी समझाया। स्नेहा बताती हैं, ‘पहली बार में कोई नहीं माना। आखिर हम महिलाएं जिस चीज के बारे में बात करने से भी हिचकती हैं उसी पर काम करना हमारे लिए आसान नहीं था। साथ ही घर वालों को यह बात समझाना और भी मुशिकल था।’ मगर, स्नेहा ने सबसे पहले अपनी मां उर्मिला को समझाया। दरआसल, स्नेहा पुलिस में भर्ती होना चाहती थी। मगर, इसकी कोचिंग के लिए पैसे जुटाना स्नेहा के लिए कठिन था। पिता किसान थे तो कमाई केवल घर पर दो वक्त की रोटी पक जाने भर की थी।
ऐसे में स्नेहा ने इस काम के लिए पहले मां को समझाया कि वह इससे अपनी कोचिंग के लिए पैसे जुटा पएगी। यह सुन कर स्नेहा की मां मान गई। मगर अभी मुश्किलें आसान नहीं हुई थीं। स्नेहा बताती है, ‘सभी लोग उनसे पूछते थे कि वह कहां काम करती हैं। तो मैं उनको यही बोलती कि बच्चों की हगीज बनाने का काम करते हैं। यह बात सुन कर सभी हंसते और कहते क्या कोई और करने लायक काम नहीं है जो आप यह काम कर रही हैं।’ मगर, स्नेहा और उसकी साथियों के कदम नहीं डगमगाए और वह यह काम करती रहीं। स्नेहा की सहेली रेखा कहती हैं, ‘घरवाले कहते थे केवल 2000 रुपए में बच्चों के हगीज बना कर आपको क्या मिल रहा है। आप कोई और काम क्यों नहीं करतीं।’
अमेरिकी एनजीओ ने बनाई फिल्म
संस्था की हापुड़ में कोऑर्डिनेटर की मदद से अमेरिका से एनजीओ के कुछ लोग गांव में आए और उन्होनें महिलाओं के पीरियड्स पर फिल्म बनाने की बात कही। तब स्नेहा और उसकी सहेलियों में इस फिल्म को करने का साहस उठाना बहुत मुश्किल था। सबसे बड़ी मुश्किल तो घर वालों को मनाने की थी। मगर स्नेहा और उसकी सहेलियों ने परिवार वालों को मना लिया और फिल्म की शूटिंग शुरू हुई। उसके बाद फिल्म ऑस्कर के लिए नॉमिनेट हुई और फिल्म को डॉक्यूमेंट्री शॉर्ट सब्जेक्ट श्रेणी में ऑसकर पुरस्कार भी मिला।