हिंदू पंचांग में एक वर्ष में 12 महीने और एक महीने में 30 तिथियां होती हैं। यही नहीं सप्ताह के सातों दिन में कोई न कोई तिथि होती है जिसका अपना अलग महत्व है। कोई भी व्रत, पर्व या उत्सव तिथियों के आधार पर ही मनाए जाते हैं, इसलिए यह समझना कभी-कभी कठिन हो जाता है कि किस दिन व्रत या त्योहार मनाना उचित है। कई बार किसी भी व्रत के दिन और तिथि में अंतर होता है। ज्योतिष के अनुसार कोई भी तिथि 19 से 24 घंटे की होती है, जबकि दिन-रात मिलाकर 24 घंटे का समय होता है। इसलिए अक्सर एक ही दिन में 2 तिथियां पड़ जाती हैं और हमारे मन में तिथियों को लेकर शंका होती है। जब भी कोई तिथि दो दिन तक होती है तब ऐसा माना जाता है कि जो पर्व उदया तिथि में पड़ रहा है उसे ही मानना उचित होता है। अक्सर हमारे मन में ये सवाल भी आता है कि हिंदू धर्म में सभी व्रत-त्योहार उदया तिथि के अनुसार ही क्यों मनाए जाते हैं। आइए ज्योतिर्विद पंडित रमेश भोजराज द्विवेदी से जानें कि किसी भी व्रत को उदया तिथि में ही क्यों मनाया जाता है और इसका महत्व क्या होता है।
पूर्णिमा, प्रतिपदा, द्वितीया, तृतीया, चतुर्थी, पंचमी, षष्ठी, सप्तमी, अष्टमी, नवमी, दशमी, एकादशी, द्वादशी, त्रयोदशी, चतुर्दशी और अमावस्या। इन सभी तिथियों को दो भागों में बांटा गया है कृष्ण पक्ष और शुक्ल पक्ष। इनमें से पूर्णिमा से अमावस्या तक 15 तिथियां कृष्ण पक्ष की होती हैं और अमावस्या से पूर्णिमा तक 15 तिथियां शुक्ल पक्ष की होती हैं। इस प्रकार कुल मिलाकर 30 तिथियां होती हैं। हालांकि, इनके केवल 16 नाम ही हैं क्योंकि दोनों पक्ष में वही तिथियां फिर से आती हैं।
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व्रत रखने और त्योहार मनाने से पहले यह जानना जरूरी होता है कि हिंदू धर्म में कौन सा त्योहार दिन में मनाया जाता है और कौन सा रात में। साथ ही, यह भी देखना होता है कि कौन-सा व्रत सूर्य से जुड़ा है और कौन-सा चंद्रमा से। रात्रि में मनाए जाने वाले त्योहार- दिवाली, दशहरा, नरक चतुर्दशी, नवरात्रि, शिवरात्रि, होली, जन्माष्टमी और लोहड़ी। इनमें उदया तिथि का ज्यादा महत्व नहीं होता है, लेकिन फिर भी इनकी तिथि उदया तिथि को ध्यान में रखकर ही रखी जाती है।
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वहीं दिन में मनाए जाने वाले त्योहार -गणेश चतुर्थी, पितृ पक्ष, रामनवमी, हनुमान जयंती, रक्षाबंधन, भाई दूज, गोवर्धन पूजा आदि हैं और इनमें उदया तिथि का ध्यान रखना अनिवार्य माना जाता है। इसी तरह एकादशी, चतुर्थी और प्रदोष व्रत भी उदया तिथि के अनुसार ही करने चाहिए, हालांकि प्रदोष का व्रत उस दिन रखना उचित होता है जिस दिन पूजा का प्रदोष काल मिल रहा हो।
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उदया तिथि का अर्थ है वह तिथि जो सूर्योदय के समय उपस्थित रहती है। उदाहरण के लिए, यदि कोई तिथि सूर्योदय के पहले पहर में शुरू होती है, तो उसे उदया तिथि माना जाता है। दूसरी स्थिति यह है कि यदि कोई तिथि दोपहर या शाम को शुरू होती है और अगले दिन दोपहर या शाम तक रहती है, तो व्रत या त्योहार अगले दिन मनाया जाता है क्योंकि उसमें ही उदया तिथि मिल रही होती है। क्योंकि अगले दिन सूर्योदय के समय वही तिथि विद्यमान होती है। इसी तरह यदि मान लीजिए कि पूर्णिमा तिथि सुबह 10:30 बजे समाप्त हो रही है और उसके बाद प्रतिपदा शुरू हो रही है, तो पूरे दिन का प्रभाव पूर्णिमा का ही माना जाएगा। क्योंकि उदया तिथि में ही पूर्णिमा पड़ेगी।
ऐसा माना जाता है कि व्रत एवं पर्व हमेशा उदया तिथि में ही मनाए जाते हैं जिससे तिथि को लेकर किसी भी तरह की शंका मन में न रहे। वहीं हिंदू धर्म में दिन की शुरुआत ही ब्रह्म मुहूर्त में होती है और ब्रह्म मुहूर्त उदया तिथि में माना जाता है। इसी वजह से हिंदू धर्म में कोई भी पर्व उदया तिथि में ही मनाया जाता है।
हिंदू धर्म की कई प्रथाएं तिथियों के अनुसार तय की जाती हैं। ऐसा माना जाता है कि व्रत-त्योहार यदि शुभ मुहूर्त में किए जाते हैं तो उनका शुभ फल मिल सकता है।
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