गर्भावस्था एक अद्भुत और पवित्र यात्रा है जिसमें एक नए जीवन का निर्माण होता है। धर्म शास्त्रों और प्राचीन ग्रंथों में गर्भावस्था के दौरान माता-पिता के आचार-विचार और कर्मों पर विशेष बल दिया गया है। ऐसा माना जाता है कि माता-पिता के विचार, भावनाएं और क्रियाएं गर्भ में पल रहे शिशु पर गहरा प्रभाव डालती हैं। अगर माता-पिता, विशेष रूप से मां, सकारात्मक और आध्यात्मिक वातावरण में रहते हैं तो संतान भी उन्हीं गुणों को आत्मसात करती है।
सरल शब्दों में कहें तो गर्भावस्था के दौरान पति-पत्नी कैसा व्यवहार करते हैं, किस तरह से बात करते हैं, कौन से काम करते हैं, क्या देखते हैं, क्या सुनते हैं आदि इन सबका गर्भ में पल रहे बच्चे पर असर होता है और जब संतान दुनिया में आ जाती है तब उसका आचरण भी वैसा ही होता है। ऐसे में ज्योतिषाचार्य राधाकांत वत्स ने हमें बताया कि धर्म शास्त्रों में 5 ऐसे काम बताए गए हैं जिन्हें अगर पति-पत्नी दोनों मिलकर प्रेग्नेंसी के दौरान करें तो होने वाली संतान भक्तिमय और आध्यात्मिक बनती है और किसी भी प्रकार की नकारात्मक उसे छू नहीं पाती है एवं भगवान की विशेष कृपा उस पर बनी रहती है।
गर्भावस्था के दौरान धार्मिक ग्रंथों का पाठ करना या सुनना
धर्म शास्त्रों में यह स्पष्ट रूप से उल्लेख है कि गर्भवती महिला को नियमित रूप से धार्मिक ग्रंथों जैसे रामायण, भगवद्गीता, उपनिषद, सुंदरकांड या अन्य शुभ श्लोकों का पाठ करना चाहिए। यदि गर्भवती महिला स्वयं पाठ न कर पाए, तो पति को चाहिए कि वह पत्नी के पास बैठकर इन ग्रंथों का पाठ करे और पत्नी ध्यानपूर्वक श्रवण करें।
उदाहरण के लिए, अभिमन्यु ने गर्भ में ही चक्रव्यूह भेदन का ज्ञान अपनी मां सुभद्रा से सुना था। यह क्रिया गर्भस्थ शिशु के मन और मस्तिष्क पर सकारात्मक प्रभाव डालती है, जिससे उसमें उच्च संस्कार और आध्यात्मिक ज्ञान की नींव पड़ती है। इससे शिशु में शांति, धैर्य और ज्ञान के गुण विकसित होते हैं।
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शब्दों का चयन और बातचीत सोच-समझकर करना
पति-पत्नी को गर्भावस्था के दौरान आपस में और दूसरों के साथ भी केवल सकारात्मक और आध्यात्मिक विषयों पर ही बात करनी चाहिए। नकारात्मकता, क्रोध, ईर्ष्या या भय से जुड़ी बातें करने से बचना चाहिए। उन्हें भविष्य में आने वाले शिशु के गुणों, उसकी शिक्षा और उसके उज्ज्वल भविष्य के बारे में सकारात्मक चर्चा करनी चाहिए। गर्भ में पल रहा शिशु अपने माता-पिता की बातें सुनता और महसूस करता है। अच्छी बातें और नेक विचार शिशु में उत्तम संस्कारों का बीजारोपण करते हैं, जिससे वह जन्म के बाद शांत, प्रसन्नचित्त और आध्यात्मिक स्वभाव का होता है।
नियमित रूप से ध्यान और प्रार्थना करना
गर्भावस्था के दौरान पति और पत्नी दोनों को मिलकर या अलग-अलग नियमित रूप से ध्यान और प्रार्थना करनी चाहिए। सुबह और शाम के समय एक साथ बैठकर कुछ मिनटों के लिए शांत मन से ईश्वर का ध्यान करें। अपनी आने वाली संतान के लिए अच्छे स्वास्थ्य, बुद्धि और आध्यात्मिक गुणों की कामना करें। प्रार्थना और ध्यान से मन को शांति मिलती है, तनाव दूर होता है और एक सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है। यह ऊर्जा गर्भस्थ शिशु तक पहुंचती है, जिससे वह भी शांत और आध्यात्मिक प्रवृत्ति का बनता है।
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पवित्र स्थानों का भ्रमण और दान-पुण्य करना
धर्म शास्त्रों के अनुसार, गर्भावस्था के दौरान पवित्र स्थानों जैसे मंदिरों, आश्रमों या प्रकृति के शांत स्थानों पर जाना बहुत शुभ माना जाता है। इससे मन को शांति मिलती है और सकारात्मक ऊर्जा का अनुभव होता है। पति-पत्नी मिलकर गौशाला जा सकते हैं, पक्षियों को दाना डाल सकते हैं, या जरूरतमंदों को दान कर सकते हैं। दान-पुण्य के कार्य शिशु पर भी सकारात्मक प्रभाव डालते हैं, क्योंकि ये कर्मों को शुद्ध करते हैं और आध्यात्मिक गुणों को बढ़ाते हैं। ऐसे कार्यों से शिशु में करुणा, दया और सेवा भाव जैसे गुण विकसित होते हैं।
तामसिक भोजन से दूर रहना
धर्म शास्त्र में भोजन को केवल शरीर का पोषण ही नहीं, बल्कि मन और आत्मा का भी पोषण माना गया है। गर्भवती महिला को सात्विक भोजन करना चाहिए, जिसमें ताजा फल, सब्जियां, दालें और अनाज शामिल हों। पति को भी इस दौरान अपनी पत्नी के साथ सात्विक भोजन का पालन करना चाहिए और घर में शांतिपूर्ण माहौल बनाए रखना चाहिए। मांस, मदिरा और तामसिक भोजन से बचना चाहिए। ऐसा इसलिए क्योंकि तामसिक भोजन का इस दौरान सेवन मां के भीतर नकारात्मकता पैदा कर सकता है जिससे राहु और केतु जैसे पाप ग्रह मां और होने वाली संतान पर भयंकर दुष्प्रभाव डाल सकते हैं।
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