आजकल 'क्वीन', 'माझी- द माउंटेन मेन', 'थ्री इडियट्स' ... जैसी फिल्में रिलीज हो रही हैं। ऑस्कर अवॉर्ड तक में हमारी फिल्मों को नॉमिनेशन मिल रहे हैं। इस कारण कहा जा रहा है कि हमारा सिनेमा बदल रहा है। बॉलीवुड प्रगति कर रहा है। बॉलीवुड आगे बढ़ रहा है।
लेकिन क्या सच में?
अभी कुछ दिनों पहले अली फजल ने भी कहा था कि बॉलीवुड, हॉलीवुड से कम से कम बीस साल पीछे है।
और ये केवल अली फजल ही नहीं, आपको भी लगेगा जब आप इस सर्वे के आंकड़ों पर एक नजर डालेंगे। इस सर्वे के अनुसार हमारे बॉलीवुड के लिए महिलाएं अब भी 'eye candy', 'अबला नारी', 'sex object' औऱ 'बेचारी' से ज्यादा कुछ नहीं है। बॉलीवुड की फ़िल्मों में महिलाओं ने 1970 से 2017 तक जितनी भी भुमिकाएं निभाईं हैं उन पर एक स्टडी की गई है। इस स्टडी के लिए 2008 से 2017 के बीच आये 880 फ़िल्मों के ट्रेलर्स लिए गए हैं और 4,000 बॉलीवुड फ़िल्मों की स्टडी की गई है। एक नजर इन आंकड़ों पर आप भी डालिए।
1महिला-पुरुष के केरेक्टर के इंड्रोडक्शन में अंतर

सबसे पहला फर्क महिला-पुरुषों के इंट्रोडक्शन में ही मिल जाता है। अब भी बॉलीवुड की फिल्मों में महिलाओं का इंड्रोडक्शन 'बेचारी' के तौर पर किया जाता है। महिलाओं के किरदार का इंट्रो 'दुखी', 'सुन्दर' और 'आकर्षक' के तौर पर होता है। वहीं पुरुष किरदारों का इंट्रोडक्शन 'ईमानदार', 'अमीर', 'ताकतवर' और 'सफ़ल' व्यक्ति के तौर पर होता है।
2केरेक्टर में अंतर

इंट्रोजक्शन तो तब अच्छा होगा जब महिलाओं को फिल्मों में अच्छे रोल मिलेंगे। अब भी महिलाओं को फिल्मों में दमदार केरेक्टर नहीं मिलते। जो मिलते हैं उनको आप उंगुलियों में गिन सकते हैं। बॉलीवुड फिल्मों में 90% पुरुषों ने पुलिस का रोल किया है जबकि 10% महिलाओं ने ही पुलिस की भूमिका निभाई है। इसी तरह 74% पुरुष डॉक्टर होते हैं जबकि 26% ही महिलाएं डॉक्टर की भूमिका निभाती हैं।
3स्क्रीन टाइम

इस स्टडी के लिए विकिपीडिया में फिल्मों के बारे में जो बातें लिखी गईं हैं उनको भी स्टडी में शामिल की गई है। स्टडी के अनुसार फ़िल्मों के plot में पुरुषों का ज़िक्र लगभग 30 बार किया गया है जबकि महिलाओं का जिक्र केवल 15 बार किया गया है।
4पर्दे के पीछे

ये अंतर केवल पर्दे पर ही नहीं पर्दे के पीछे भी देखने को मिलता है। फिल्मों में गाना गाने का मौका गायिकाओं को गायकों की तुलना में कम मिलता है।
5महलिाओं को मिल रही हैं जरूरी भूमिकाएं

इसमें कोई दो राय नहीं कि बॉलीवुड बदल रहा है। लेकिन ये कहना गलत है कि महिलाओं की स्थिति में बदलाव आए हैं। सार्थक फिल्में बननी शुरू हुई हैं लेकिन उसमें भी पुरुषों का प्रभुत्व अधिक है। बड़े उम्र के पुरुषों या मेल सेंट्रिक मूवी तो खूब बन जाती हैं जो अच्छी भी होती हैं, जैसे कि पा, रा-वन, अलीगढ़, माझी- द माउंटेन मेन वहीं फिमेल सेंट्रिक मूवी और बड़ी उम्र की महिलाओं के लिए कम मूवी बनती हैं जैसे मॉम और क्वीन। जबकि दोनों तरह की फिल्में खूब बननी चाहिए और खू बननी चाहिए। जिससे हमारा समाज भी #BeSmart बनें।