प्रयागराज को सनातन धर्म में तीर्थराज के रूप में पूजा जाता है। यह न केवल एक पवित्र स्थल है बल्कि यज्ञ और तपस्या की भी भूमि मानी जाती है। वैदिक पौराणिक कथाओं के अनुसार, प्रयागराज में अनेक देवी-देवताओं और ऋषि-मुनियों ने यज्ञ और तप किए हैं। इनमें से एक प्रमुख नाम है महर्षि दुर्वासा का। वे ऋषि अत्रि और माता अनसूया के पुत्र थे। पौराणिक कथाओं में महर्षि दुर्वासा को उनके क्रोध और श्राप के लिए जाना जाता है। एक प्रसिद्ध कथा के अनुसार, उनके श्राप के कारण ही देवता शक्तिहीन हो गए थे। इसी कारण देवताओं ने भगवान विष्णु के कहने पर असुरों के साथ मिलकर समुद्र मंथन किया था। महर्षि दुर्वासा की तपस्थली प्रयागराज के झूंसी में गंगा तट पर स्थित है। मान्यता है कि अपने क्रोध के कारण ही महर्षि दुर्वासा को प्रयागराज में शिव जी की तपस्या करनी पड़ी थी। आइए इस लेख में ज्योतिषाचार्य पंडित अरविंद त्रिपाठी से विस्तार से इस लेख में जानते हैं।
पुराणों में वर्णित समुद्र मंथन की कथा, महाकुंभ के आयोजन से सीधे जुड़ी हुई है। इस कथा के अनुसार, एक बार देवराज इंद्र, महर्षि दुर्वासा द्वारा दी गई माला को अपने हाथी को पहना देते हैं। इससे क्रोधित होकर महर्षि दुर्वासा देवताओं को शक्तिहीन होने का श्राप दे देते हैं। देवता अपनी शक्ति वापस पाने के लिए भगवान विष्णु के पास जाते हैं। भगवान विष्णु उन्हें समुद्र मंथन करने की सलाह देते हैं। समुद्र मंथन से अमृत निकलेगा, जिससे देवता अमर हो जाएंगे। समुद्र मंथन के दौरान अनेक दिव्य वस्तुएं निकलीं, जिनमें से एक अमृत कलश भी था। इस अमृत कलश को लेकर देवताओं और असुरों के बीच युद्ध छिड़ गया। इस युद्ध के दौरान अमृत की कुछ बूंदें धरती पर गिर गईं। मान्यता है कि ये बूंदें चार स्थानों पर गिरी थीं। प्रयागराज, हरिद्वार, नासिक और उज्जैन। इन्हीं स्थानों पर अमृत की बूंदें गिरने के कारण इन स्थानों को पवित्र माना जाता है और यहीं पर महाकुंभ का आयोजन किया जाता है। ऐसा माना जाता है कि इन स्थानों पर स्नान करने से व्यक्ति को मोक्ष प्राप्त होता है और उसके सारे पाप धुल जाते हैं।
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कथा के अनुसार, इक्ष्वाकु वंश के राजा अंबरीष जो भगवान विष्णु के परम भक्त थे, उन्होंने एक बार क्रोध में आकर महान ऋषि दुर्वासा को गलत श्राप दे दिया था। इस श्राप के कारण, भगवान विष्णु का अत्यंत शक्तिशाली और खतरनाक अस्त्र, सुदर्शन चक्र, महर्षि दुर्वासा का पीछा करने लगा, मानो उन्हें मार डालने को आतुर हो।
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भगवान विष्णु ने महर्षि दुर्वासा को बचाने के लिए उन्हें प्रयागराज में संगम के तट से लगभग 13 किलोमीटर की दूरी पर जाकर भगवान शिव की तपस्या करने को कहा। महर्षि दुर्वासा ने गंगा नदी के किनारे एक शिवलिंग स्थापित किया और भगवान शिव की तपस्या और पूजा शुरू कर दी। उनकी इस गहन तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने उन्हें अभयदान दिया, यानी उन्हें किसी भी प्रकार के भय से मुक्त कर दिया। ऐसी मान्यता है कि महर्षि दुर्वासा द्वारा स्थापित इस शिवलिंग की पूजा करने से भक्तों को भी भगवान शिव का आशीर्वाद प्राप्त होता है और उन्हें जीवन में किसी भी प्रकार के संकट से मुक्ति मिलती है।
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Image Credit- HerZindagi
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