संध्या को ऑफिस जाने का मन नहीं करता था, नहीं-नहीं गलत मत समझिए। संध्या दरअसल, अपने काम से खुश नहीं थी। उसके लिए काम पर जाने का मतलब था दिन भर कुछ ऐसा सुनना जिसकी आदत कभी नहीं होगी। संध्या एक ट्रांसपोर्ट कंपनी में ट्रक ड्राइवर है। जी हां, संध्या की नौकरी कुछ ऐसी है जहां उसे रात-दिन हाईवे के चक्कर काटने पड़ते हैं। यकीनन आपको लगता होगा कि यह तो पुरुषों का काम है, लेकिन पैसा कमाना है तो, संध्या को यह करना ही पड़ेगा। संध्या शुरुआत से ही अपने पिता के साथ ट्रक में जाया करती थी। उसके पिता भी तो ट्रक ड्राइवर ही थे। 16 साल की उम्र से ही उसने ट्रक चलाना सीख लिया था। शायद नियति को यही मंजूर था कि संध्या जल्दी ही अपने पैरों पर खड़ी हो जाए।
पढ़ाई-लिखाई में ज्यादा तेज नहीं थी संध्या इसलिए कोई और नौकरी तो करना मुमकिन नहीं था। पिता की मौत के वक्त कुछ 17 बरस की थी वो। अब घर की पूरी जिम्मेदारी उसी पर आ गई थी। संध्या के साथ इतनी सारी समस्याएं होने लगी थीं कि उसे समझने में दिक्कत हो रही थी कि अब क्या किया जाए। बस फिर क्या था, उसने एक ही चीज जो दिल लगाकर सीखी थी उसी को अपना पेशा बना लिया। एक लड़की अगर पुरुषों के काम करने लगे, तो समाज क्या करता है, वो आप अच्छी तरह समझते होंगे। संध्या के साथ भी वही होता था, कई बार दिन तो कई बार रात में उसे ट्रैवल के लिए जाना पड़ता था। ऐसे में बाकी ट्रक ड्राइवरों का उसे बार-बार ताने मारना, उसे छेड़ना, शराब पीकर उसके साथ बद्तमीजी करना सब आम था।
घर पर भी कुछ अलग नहीं था। मां को उसकी शादी की चिंता थी और पड़ोसियों और रिश्तेदारों को संध्या का ट्रक ड्राइवर होना पसंद नहीं था। भले ही वो परिवार भूखा मर जाए, लेकिन संध्या का अपने पैरों पर खड़े होना उनके लिए इज्जत का सवाल था। इतनी सारी समस्याओं के बीच संध्या भूल ही गई थी कि उसने ट्रक चलाना क्यों शुरू किया था। संध्या को जिस काम में सुकून मिलता था, जिस काम को करके वो अपने पिता के पास खुद को महसूस करती थी, वह काम अब संध्या के लिए बोझ बनता जा रहा था। उसे समझ ही नहीं आ रहा था कि इतनी जल्दी उससे उसकी मासूमियत, उसका बचपन कैसे छिन गया।
संध्या के सामने अपने छोटे भाई की जिम्मेदारी भी थी। ऐसा ही तो होता है हर घर में। माता-पिता को लगता है कि छोटे भाई-बहन की जिम्मेदारी सिर्फ उनके बड़े बच्चों की है। हमारे देश में एक नियम है कि बड़े बच्चे समय से पहले ही बड़े बन जाते हैं। माता-पिता उनसे उनका बचपन ही छीन लेते हैं। पर संध्या को शिकायत नहीं थी, उसके लिए तो उसका छोटा भाई उसका अपना ही बच्चा था। संध्या दिन रात मेहनत करके जो भी कमाती थी, वो सब कुछ घर चलाने में निकल जाता था और बचा-कुचा उसी घर की ईएमआई में।
संध्या के पिता ने लोन लेकर वह घर खरीदा था। उन्हें लगता था कि इस घर से ही संध्या की डोली उठेगी, लेकिन घर की ईएमआई शुरू होते ही पिता इस दुनिया से चल बसे। संध्या आज भी तैयार होकर उसी EMI वाली नौकरी के लिए जा रही है। उसे तो आर्टिस्ट बनना था। जी हां, ये तो शायद मैंने आपको बताया ही नहीं, संध्या आर्टिस्ट थी, बहुत उम्दा। उसकी कला इतनी अच्छी थी कि पिता उसे आर्ट कॉलेज में भर्ती करवाना चाहते थे। पेंटिंग्स से घर को भर दिया था संध्या ने।
संध्या के लिए आज का दिन थोड़ा ज्यादा भारी हो गया था। उसने शुरुआत तो अच्छी सोची थी, लेकिन कुछ और ही होता चला गया। सुबह उठते ही उसके लिए एक नया कलेश सामने खड़ा था। गांव से बुआ आ गई थी। इस बार एक और रिश्ता लेकर। उनके ससुराल वालों के साइड का रिश्ता। सुबह नाश्ते के साथ ही बुआ शुरू हो गईं। 'अरे अब 20 की हो गई है बिटिया। अगर अभी नहीं करोगी शादी तो कब करोगी, दिन-रात आवारा की तरह घूमती रहती है, शादी नहीं हुई और कुछ ऊंच-नीच हो गई, तो क्या होगा?' बुआ ने कहा। 'आवारा....' संध्या के लिए यह शब्द बहुत अजीब था। अपने घर की जिम्मेदारी निभाना आवारा होना होता है क्या? पर करे भी तो क्या, दुनिया के लिए तो यह काम पुरुषों का है। छोटा भाई तो अभी बस 14 साल का है। उसे तो ट्रक चलाने का लाइसेंस मिलेगा नहीं।
संध्या चुप चाप उठी और नाश्ता किए बिना ही चाभी उठाकर चल दी। आज दिन भर बुआ जी मां के कान भरेंगी और फिर संध्या की समस्याएं बढ़ती चली जाएंगी। संध्या तो अपने घर की जिम्मेदारी निभा रही थी, लेकिन उसे अपने लिए बोझ, आवारा, लड़कों को हवा देने वाली और ना जाने क्या-क्या सुनने को मिलता था। कोई कभी संध्या से नहीं पूछता था कि उसे क्या करना है। उसे भी तो नहीं करनी थी ये नौकरी, लेकिन करे भी तो क्या। ट्रांसपोर्ट ऑफिस पहुंच कर संध्या ने अपना नया काम देखा। उसे इस बार राजस्थान की ओर जाना था। महाराष्ट्र के गांव से सीधे राजस्थान तक का सफर। एक हफ्ते के लिए बाहर रहना। संध्या के हाथ-पैर कांप गए। यह पहली बार था, जब उसे इतनी दूर का काम मिला था। पैसे अच्छे मिलने थे, लेकिन फिर भी घर का क्या होगा।
'सर इतनी दूर जाने पर थोड़ी दिक्कत होगी, घर पर मां...' संध्या अपने बॉस से बात पूरी कर पाती उससे पहले ही बॉस ने उसे रोक दिया। 'यार तुम्हारा हमेशा का है। इससे अच्छा तो किसी लड़के को नौकरी पर रख लेता, कम से कम काम के लिए परेशानी तो नहीं होती। जाना है तो जाओ, नहीं तो पूरे महीने तक कोई काम नहीं...' बॉस ने सीधा सा जवाब दिया और संध्या के लिए इस काम को करना मजबूरी बन गया। घर जाते ही संध्या ने जैसे ही इसके बारे में बताया, मानो बम फूट गया।
'अरे ऐसे कैसे जाओगी, समझ भी आ रहा है क्या कह रही हो, इतने दिन के लिए बाहर... लड़के वालों को पता चला तो रिश्ता तोड़ देंगे।' बुआ ने कहा। 'अभी रिश्ता हुआ नहीं है बुआ... और मेरा काम यही है, घर की ईएमआई देनी है।' संध्या ने सफाई पेश की। 'हमेशा का यही रोना, अपने ईएमआई ही तो है, कोई शरीफों वाली नौकरी करके भी तो की जा सकती है। तुमने ही तो बिगाड़ रखा है इस लड़की को..' बुआ बोले जा रही थीं, मां को सुनाए जा रही थीं, लेकिन संध्या ने कुछ नहीं कहा और आगे बढ़ गई। कल सुबह-सुबह ही निकलना था।
सुबह होते ही संध्या ने तैयारी की और ना जाने क्यों इस बार अपने साथ पेंटिंग का सामान भी रख लिया। संध्या को अपने पिता के साथ जो जाना था। उसे तो अपने पिता के साथ ही राजस्थान घूमना था, लेकिन वह हो नहीं पाया। चलो कुछ नहीं, तो संध्या एक दो किले ही देख लेगी। ऑफिस जाकर पूरी डिटेल्स ली, सामान ट्रक में लोड करवाया और निकल पड़ी संध्या। उसके साथ आज छोटू जा रहा था। उससे तीन साल छोटा था छोटू और हेल्पर भी था। ट्रक की यात्रा में अधिकतर उसके साथ रहता था।
यात्रा शुरू हुई और संध्या ने ट्रक को चलाना शुरू किया। बाहर जाने से पहले उसे पेट्रोल भरवाना था, तो पेट्रोल पंप पर रुक गई। उसे देखकर पेट्रोल भरने वाले लोगों ने भी एक दो कमेंट किए, लेकिन अब इतने की तो आदी हो चुकी थी संध्या। खैर, जैसे-तैसे उसने ट्रक चलाना शुरू किया। मां ने खाना बांधकर दिया था, लेकिन संध्या को भूख नहीं थी। बुआ के ताने खाकर निकली थी घर से वह। मां की खामोशी उसे हमेशा कचोटती रहती थी। आखिर क्यों मां कभी कुछ नहीं बोलतीं।
रास्ते लंबे थे और बिन मौसम बरसात ने संध्या की मुसीबत थोड़ी बढ़ा दी थी। मूसलाधार बारिश से ट्रक में रखे सामान को बचाना था तो संध्या पास के ही एक ढाबे पर रुक गई। वहां ट्रक को पेड़ की छांव में खड़ा किया और उसके अंदर ही बैठी रही। छोटू को बोलकर थोड़ा पानी और चाय मंगवा ली। ऐसी जगहों पर संध्या बाहर नहीं निकलती है। उसके बाहर निकलने पर उसे सुरक्षित महसूस नहीं होता। हमारे देश की बेटियां कुछ ऐसे ही तो अपना समय बिताती हैं। खुद छुपकर... संध्या सोच ही रही थी कि किसी ने ट्रक का दरवाजा खटखटाया... सामने एक यात्री था। 'माफ कीजिए... मुझे थोड़ी मदद की जरूरत है।' अतुल ने कहा। संध्या एक टक उसे देखे जा रही थी और उसने भी शायद ड्राइवर सीट पर बैठे हुए एक लड़की को नहीं देखा था। अतुल ट्रेकिंग के लिए पास के जंगलों में गया था और उसकी बस छूट गई थी। अब रात भर ढाबे में रुकने की जगह उसने सोचा कि किसी से लिफ्ट लेना बेहतर है।
वैसे तो संध्या अजनबियों से दूर रहती है, लेकिन पता नहीं क्यों उसने अतुल को लिफ्ट दे दी। छोटू चाय लेकर आ चुका था और बारिश भी रुक रही थी। संध्या ने चाय पी और निकल गई सफर पर। अतुल संध्या को देखे जा रहा था और अचानक बोल पड़ा, 'मैंने आपसे ज्यादा ब्रेव लड़की नहीं देखी...' संध्या ने चौंक कर अतुल की ओर देखा। ब्रेव... यानी बहादुर... अब तक तो संध्या को लोग सिर्फ बुरा ही कहते थे। पहली बार किसी ने संध्या को अच्छा कहा था। ये रास्ता संध्या की जिंदगी का एक नया पड़ाव होने वाला था।
क्या हुआ आगे संध्या और अतुल के साथ, क्या संध्या अपनी यात्रा पूरी कर पाई? क्या उसे कुछ अच्छा मिला? सब जानिए कहानी के अगले भाग... EMI वाली नौकरी-पार्ट 2 में।
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